भक्तामर स्तोत्र जैन धर्म का एक अत्यंत प्रसिद्ध और शक्तिशाली स्तोत्र है, जिसे आचार्य मानतुङ्ग ने भगवान आदिनाथ की स्तुति के रूप में रचा। कहा जाता है कि जब एक क्रुद्ध राजा ने आचार्य श्री को बंदी बना लिया और उन्हें 48 तालों में बंद कर दिया, तब आचार्य श्री ने धर्म की रक्षा और प्रचार हेतु Bhaktamar Stotra का रचनात्मक कार्य शुरू किया।
जैसे-जैसे इस स्तोत्र के श्लोक उच्चारित होते गए, वैसे-वैसे उन 48 तालों के ताले स्वतः खुलते गए। अंततः राजा ने अपनी गलती स्वीकार कर आचार्य के प्रति गहरी भक्ति और सम्मान प्रकट किया। इस स्तोत्र का नियमित पाठ समस्त विघ्नों और बाधाओं को नष्ट करता है और यह हर रूप में मंगलकारी माना जाता है। प्रत्येक श्लोक को एक विशेष मंत्र के रूप में पूजनीय माना जाता है।
Bhaktamar Stotra
॥श्री आदिनाथाय नमः॥
भक्तामरस्तोत्रम् संस्कृत
कालजयी महाकाव्य श्रीमन्मानतुङ्गाचार्य-विरचितम्।
भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम्,
सम्यक्-प्रणम्य जिन प-पाद-युगं युगादा-
वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम्॥१॥
य: संस्तुत: सकल-वां मय-तत्त्व-बोधा-
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभि: सुर-लोक-नाथै:,
स्तोत्रैर्जगत्-त्रितय-चित्त-हरैरुदारै:
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥२॥
बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ!
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम्,
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम्॥३॥
वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र ! शशांक-कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या,
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥४॥
सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृत्त:,
प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम्॥५॥
अल्प-श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम्,
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतु:॥६॥
त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्,
आक्रान्त-लोक-मलि-नील-मशेष-माशु
सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥७॥
मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद,-
मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात्,
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु
मुक्ता-फल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु:॥८॥
आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोषं,
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति,
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव
पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि॥९॥
नात्यद्-भुतं भुवन-भूषण ! भूूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त-मभिष्टुवन्त:,
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति॥१०॥
दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष-विलोकनीयं,
नान्यत्र-तोष-मुपयाति जनस्य चक्षु:,
पीत्वा पय: शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो:
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥११॥
यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,
निर्मापितस्-त्रि-भुवनैक-ललाम-भूत,
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां
यत्ते समान-मपरं न हि रूप-मस्ति॥१२॥
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
नि:शेष-निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम्,
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम्॥१३॥
सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास्-त्रि-भुवनं तव लंघयन्ति,
ये संश्रितास्-त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम्॥१४॥
चित्रं-किमत्र यदि ते त्रिदशांग-नाभिर्-
नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम्,
कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्॥१५॥
निर्धूम-वर्ति-रपवर्जित-तैल-पूर:,
कृत्स्नं जगत्त्रय-मिदं प्रकटीकरोषि,
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश:॥१६॥
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्-जगन्ति,
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभाव:
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके॥१७॥
नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं,
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम्,
विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्पकान्ति
विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशांक-बिम्बम्॥१८॥
किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तम:सु नाथ!,
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके
कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र:॥१९॥
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु,
तेजो महा मणिषु याति यथा महत्त्वं
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि॥२०॥
मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति,
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:
कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि॥२१॥
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता,
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम्॥२२॥
त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-
मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात्,
त्वामेव सम्य-गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था:॥२३॥
त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं,
ब्रह्माणमीश्वर-मनन्त-मनंग-केतुम्,
योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकं
ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त:॥२४॥
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात्,
धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥२५॥
तुभ्यं नमस्-त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल-भूषणाय,
तुभ्यं नमस्-त्रिजगत: परमेश्वराय
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय॥२६॥
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्-
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश!,
दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वै:
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि॥२७॥
उच्चै-रशोक-तरु-संश्रितमुन्मयूख-
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्,
स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति॥२८॥
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्,
बिम्बं वियद्-विलस-दंशुलता-वितानं
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे:॥२९॥
कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं,
विभ्राजते तव वपु: कलधौत-कान्तम्,
उद्यच्छशांक-शुचिनिर्झर-वारि-धार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम्॥३०॥
छत्रत्रयं-तव-विभाति शशांककान्त,
मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर-प्रतापम्,
मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभं
प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम्॥३१॥
गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभागस्-
त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्ष:,
सद्धर्म-राज-जय-घोषण-घोषक: सन्
खे दुन्दुभि-ध्र्वनति ते यशस: प्रवादी॥३२॥
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात-
सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टि-रुद्घा,
गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रपाता
दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा॥३३॥
शुम्भत्-प्रभा-वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते,
लोक-त्रये-द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती,
प्रोद्यद्-दिवाकर-निरन्तर-भूरि-संख्या
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥३४॥
स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्ट:,
सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस्-त्रिलोक्या:,
दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व-
भाषास्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य:॥३५॥
उन्निद्र-हेम-नव-पंकज-पुंज-कान्ती,
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-शिखाभिरामौ,
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:
पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति॥३६॥
॥अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी मंत्र॥
इत्थं यथा तव विभूति-रभूज्-जिनेन्द्र्र!,
धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य।
यादृक्-प्र्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि॥३७॥
॥हस्ती भय निवारण मंत्र॥
श्च्यो-तन्-मदाविल-विलोल-कपोल-मूल
मत्त-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम्,
ऐरावताभमिभ-मुद्धत-मापतन्तं
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्॥३८॥
॥सिंह-भय-विदूरण मंत्र॥
भिन्नेभ-कुम्भ-गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त
मुक्ता-फल-प्रकरभूषित-भूमि-भाग:,
बद्ध-क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते॥३९॥
॥अग्नि भय-शमन मंत्र॥
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिंगम्,
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख-मापतन्तं
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम्॥४०॥
॥सर्प-भय-निवारण मंत्र॥
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतन्तम्,
आक्रामति क्रम-युगेण निरस्त-शंकस्-
त्वन्नाम-नागदमनी हृदि यस्य पुंस:॥४१॥
॥रण-रंगे-शत्रु पराजय मंत्र॥
वल्गत्-तुरंग-गज-गर्जित-भीमनाद-
माजौ बलं बलवता-मपि-भूपतीनाम्,
उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति:॥४२॥
॥रणरंग विजय मंत्र॥
कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह,
वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे,
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-
त्वत्पाद-पंकज-वनाश्रयिणो लभन्ते:॥४३॥
॥समुद्र उल्लंघन मंत्र॥
अम्भोनिधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र-
पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ,
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-
त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्-व्रजन्ति:॥४४॥
॥रोग-उन्मूलन मंत्र॥
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्ना:,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशा:,
त्वत्पाद-पंकज-रजो-मृत-दिग्ध-देहा:
मत्र्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपा:॥४५॥
॥बन्धन मुक्ति मंत्र॥
आपाद-कण्ठमुरु-शृंखल-वेष्टितांगा,
गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट-जंघा:,
त्वन्-नाम-मन्त्र-मनिशं मनुजा: स्मरन्त:
सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति:॥४६॥
॥सकल भय विनाशन मंत्र॥
मत्त-द्विपेन्द्र-मृग-राज-दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्ध-नोत्थम्,
तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते:॥४७॥
॥जिन-स्तुति-फल मंत्र॥
स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्,
भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्,
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं
तं मानतुंग-मवशा-समुपैति लक्ष्मी:॥४८॥
– आचार्य मानतुंग
यह स्तोत्र केवल शब्दों का मेल नहीं, बल्कि आत्मा की गहराइयों से उपजी भक्ति की पवित्र धारा है। इसकी साधना से तन-मन शुद्ध होता है, कर्म बंधनों का क्षय होता है और आत्मा परम सत्य की ओर अग्रसर होती है। इसे श्रद्धा और पूर्ण विश्वास के साथ किया जाए, तो यह साधक के जीवन में अद्भुत सकारात्मक परिवर्तन लाने वाला सिद्ध होता है। आप इसे मोबाइल में पढ़ने के लिए Bhaktamar Stotra PDF को डाउनलोड कर सकते है।
भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद अब तक कितनी भाषाओं में हुआ है?
इस स्तोत्र का अनुवाद अब तक करीब 130 बार किया जा चुका है और यह कई भाषाओं में उपलब्ध है। भक्तामर स्तोत्र संस्कृत से अनूदित होकर यह अंग्रेजी, हिंदी, भक्तामर स्तोत्र गुजराती, भक्तामर स्तोत्र मराठी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, भक्तामर स्तोत्र कन्नड़, मलयालम, उर्दू, पंजाबी सहित कई अन्य भाषाओं में पढ़ा और गाया जाता है। इसकी लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है, जिससे अधिक से अधिक लोग इस दिव्य स्तोत्र का लाभ उठा सकें और इसकी आध्यात्मिक ऊर्जा को अनुभव कर सकें।
स्तोत्र की जप विधि: भक्ति से मोक्ष की ओर
- शुद्धि और संकल्प: सुबह स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें। शांत और पवित्र स्थान पर बैठकर भगवान आदिनाथ का ध्यान करें। अपने मन में एक संकल्प लें कि यह जप श्रद्धा और आत्मिक शुद्धि के लिए किया जा रहा है।
- स्थान और आसन: उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख करके किसी आसन (कुश, ऊन या रेशमी वस्त्र) पर बैठें। आसन स्थिर हो ताकि ध्यान एकाग्र बना रहे।
- दीप, धूप और भोग अर्पण: भगवान ऋषभदेव के समक्ष दीप प्रज्वलित करें, धूप और भोग अर्पण करें। इससे स्थान में सात्त्विक ऊर्जा का संचार होता है।
- मानसिक शुद्धि: मन को शांत करें और श्रद्धा भाव से यह अनुभव करें कि भगवान आदिनाथ स्वयं आपके समक्ष हैं और उनकी दिव्य कृपा आप पर बरस रही है।
- स्तोत्र का पाठ:
- यदि संपूर्ण स्तोत्र का पाठ संभव हो तो पूरे 48 श्लोक श्रद्धा सहित पढ़ें।
- यदि विशेष सिद्धि या लाभ के लिए पाठ कर रहे हैं, तो संबंधित श्लोक का 108 बार जप करें।
- मंत्रोच्चार स्पष्ट और श्रद्धा से भरपूर होना चाहिए।
- विशेष जप अनुष्ठान: कुछ साधक किसी विशेष उद्देश्य के लिए 44 दिनों तक इस स्तोत्र का पाठ करते हैं।
किसी विशेष समस्या या सिद्धि के लिए, इस स्तोत्र के विशिष्ट श्लोकों का जप किया जाता है। - समर्पण और आभार: पाठ समाप्त होने पर भगवान आदिनाथ से प्रार्थना करें कि उनकी कृपा और आशीर्वाद सदा आपके जीवन में बना रहे।
Bhaktamar Path से निम्नलिखित लाभ होते हैं:
- आध्यात्मिक उन्नति: जब व्यक्ति इस स्तोत्र को गहराई से अनुभव करता है, तो उसके भीतर सात्त्विक ऊर्जा का संचार होने लगता है, जिससे अहंकार, क्रोध, लोभ और अन्य मानसिक विकार धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं। इस स्तोत्र का जप आत्मा को पवित्र करने और मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करने का कार्य करता है।
- संकट से मुक्ति: जब इसे पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ पढ़ा जाता है, तो जीवन में आने वाली कठिनाइयाँ स्वतः ही समाप्त होने लगती हैं। यह न केवल बाहरी समस्याओं का समाधान करता है, बल्कि आंतरिक अशांति और भय को भी दूर करने में सहायक होता है।
- रोगों से मुक्ति: कई लोग इस स्तोत्र का पाठ करके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य में अद्भुत सुधार का अनुभव कर चुके हैं। यदि इसे पूर्ण श्रद्धा के साथ पढ़ा जाए, तो इसका प्रभाव दवा से भी अधिक चमत्कारी साबित हो सकता है।
- आर्थिक समृद्धि: इस स्तोत्र का पाठ करने से जीवन में समृद्धि और सफलता के मार्ग खुलते हैं। यह न केवल आर्थिक परेशानियों को दूर करता है, बल्कि व्यवसाय और नौकरी में उन्नति भी प्रदान करता है।
- मन की शांति: इस पवित्र स्तोत्र का पाठ मानसिक तनाव, चिंता और अवसाद को दूर करने में सहायक होता है। जब व्यक्ति इसे नित्यप्रति करता है, तो उसके मन में नई ऊर्जा का संचार होता है और उसकी सोच सकारात्मक बनने लगती है।
- चमत्कारी प्रभाव: स्तोत्र को कई संतों और तपस्वियों ने एक सिद्ध स्तोत्र माना है। इसकी साधना से साधक को विशेष आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं।
- मोक्ष मार्ग: जब व्यक्ति पूरी श्रद्धा और समर्पण भाव से इस स्तोत्र का जप करता है, तो उसके कर्मों का क्षय होता है और वह आत्मिक शांति की ओर बढ़ता है। अंततः यह स्तोत्र मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करने में सहायक सिद्ध होता है।
इस स्तोत्र की महिमा अपार है। इसका जप न केवल भौतिक सुख-समृद्धि प्रदान करता है, बल्कि आत्मा को परम आनंद की ओर भी ले जाता है। इसे श्रद्धा और विश्वास के साथ पढ़ने से साधक के जीवन में चमत्कारी परिवर्तन आते हैं और वह अपने भीतर एक दिव्य ऊर्जा का अनुभव करता है।
FAQ
इस स्तोत्र का जप कितनी बार करना चाहिए?
संपूर्ण स्तोत्र को एक बार या 3, 5, 7, 11 या 21 बार पढ़ा जा सकता है। यदि विशेष लाभ के लिए पाठ किया जा रहा हो, तो संबंधित श्लोक का 108 बार जप करना अत्यधिक प्रभावी माना जाता है।
क्या इस स्तोत्र को किसी विशेष इच्छा पूर्ति के लिए पढ़ा जा सकता है?
हाँ, इस स्तोत्र में कुछ विशिष्ट श्लोक ऐसे हैं, जिन्हें किसी विशेष मनोकामना की पूर्ति के लिए जपा जाता है। उदाहरण के लिए, धन प्राप्ति, रोग मुक्ति, शत्रुओं से रक्षा या कार्य सिद्धि के लिए कुछ विशेष श्लोकों का जप किया जाता है।
क्या इस स्तोत्र का पाठ केवल जैन धर्म के लोग ही कर सकते हैं?
नहीं, इस स्तोत्र पर कोई धार्मिक बाध्यता नहीं रखता। यह शुद्ध भक्ति और श्रद्धा पर आधारित स्तोत्र है, जिसे कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में शांति, समृद्धि और आध्यात्मिक उत्थान के लिए पढ़ सकता है।
क्या इस पवित्र स्तोत्र से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है?
यह स्तोत्र केवल सांसारिक लाभों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मा को मोक्ष की ओर भी अग्रसर करता है।
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मैं धर्म पाल जैन एक आध्यात्मिक साधक और जैन धर्म का अनुयायी हूँ। मेरी गहरी आस्था जैन धर्म की शिक्षाओं, भगवान महावीर के सिद्धांतों और भक्तामर स्तोत्र की दिव्य शक्ति में है।मेरी वेबसाइट पर भक्तामर स्तोत्र का संपूर्ण पाठ, उसका अर्थ, पीडीएफ, इमेजेज और भगवान महावीर से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध है।